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Friday 18 November 2011

विवाह ज्योतिष

विवाह ज्योतिष 

1. मंगली दोष - Manglik Dosh 

मंगली दोष जब कुन्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में मंगल बैठा हो तब मंगल दोष माना जाता है. इसी प्रकार चन्द्र से लग्न में, चतुर्थ में, सप्तम में, अष्टम में या द्वादश भाव में मंगल हो तब उसे चन्द्र मंगलीक मानते हैं शुक्र से भी उपरोक्त भावों में मंगल स्थित हो तो शुक्र मंगलीक माना जाता है. चन्द्र लग्न का भी लग्न के समान ही महत्व माना गया है तथा शुक्र विवाह एवं दाम्पत्य सुख का प्रतिनिधि तथा कारक ग्रह होता है. इसलिए इन दोनों ग्रहों से भी मंगलीक दोष का विचार करते हैं. तीनों से मंगलीक दोष का विचार इसलिए किया जाता है कि लग्न शरीर का, चन्द्रमा मन का तथा शुक्र रति का प्रतिनिधित्व करता है.

दक्षिण भारत के ज्योतिष ग्रन्थों में लग्न के स्थान पर द्वितीय भाव को मंगलीक दोष में शामिल किया गया है.
 

2. आद्य नाडी़ - Adya Nadi 

ज्योतिष शास्त्र की तीन नाड़ियों में से पहली नाडी़ आद्य नाडी़ है. यह नाडी़ वात प्रवृ्त्ति की होती है. जिस जातक की आद्य नाडी़ है, उसे वात या वायु विकार से संबंधित रोग अधिक होगें. 

3. उपग्रह दोष - Upgrah Dosh 

उपग्रह दोष में अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया जाता है. जिस दिन विवाह का मुहूर्त निकालना है, उस दिन सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा के नक्षत्र तक गिनें. यदि चन्द्रमा का नक्षत्र, सूर्य के नक्षत्र से 5,7,8,10,14,15,18,19,21,22,23,24,25 वें स्थान पर है तो यह उपग्रह दोष कहलाता है. 

4.एकार्गल दोष - Ekargal Dosh 

जिस दिन सूर्य नक्षत्र से अभिजित सहित गिनने पर चन्द्रमा और सूर्य के बीच के नक्षत्र विषम संख्यक हों और व्यतिपात, शूल, विषकुंभ, गण्ड, वैधृ्ति, वज्र, परिघ, अतिगण्ड में से कोई एक योग हो तो इस दोष का निर्माण होता है. यह दोष भंग हो जाता है यदि चन्द्रमा सम संख्यक नक्षत्र में पडे़.अर्थ यह है कि सूर्य के नक्षत्र से चन्द्रमा का नक्षत्र विषम स्थानों में पड़ने तथा उपरोक्त लिखे अशुभ योग भी उसी समय हों तो एकार्गल दोष बनता है.  

5. क्रान्ति साम्य दोष - Kranti Samya Dosh

इस दोष को महापात दोष भी कहते हैं सूर्य - चन्द्रमा की क्रान्ति समान होने पर यह दोष होता है. शुभ कार्यों में इस दोष की बडी़ निन्दा की गई है. इसमें विवाह करना सर्वत्र ही वर्जित है. सिंह व मेष राशि, वृ्ष व मकर राशि, तुला व कुंभ राशि, मिथुन व धनु राशि, कर्क व वृ्श्चिक राशि, कन्या व मीन राशि युगलों में सूर्य व चन्द्रमा रहें तभी इस दोष की संभावना रहती है. 

6. गण मिलान - Gan Milan [Gan Matching]

गण तीन प्रकार के होते हैं :- 1 देव, 2 मनुष्य, 3 राक्षस गण. ये प्रकृ्ति के तीन गुणों - सत्त्व, रजस एवं तमस - के प्रतीक माने गए हैं. गणों का निर्धारण जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. इसमें कुल अंक 6 होते हैं.

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  • देवगण में उत्पन्न व्यक्ति स्वभावत: सात्त्विक होता है.
  • मनुष्य गण में उत्पन्न व्यक्ति में रजस गुण होते हैं.
  • राक्षस गण वाले जातक में तमस गुण विद्यमान होते हैं. 

7. गुण मिलान का निर्णय - Gun Milan ka Nirnay

गुण मिलान में Nari milan एवं bhakut milan शुद्ध हों तथा गुण 20 से अधिक मिलते हों तब विवाह किया जा सकता है.25 या इससे अधिक गुण होने पर मिलान उत्तम होता है. गुण मिलान में यदि 20 से कम गुण मिलते हों तो वर्ग का विचार अवश्य करना चाहिए वर और कन्या मित्र वर्ग के हों तो 18 गुण मिलने पर भी विवाह कर सकते हैं. 

8. ग्रह मैत्री - Grah Maitri [Friendship of Planets]

ग्रह मैत्री के कुल अंक पाँच होते हैं. जब वर एवं कन्या दोनों की राशियों के स्वामी ग्रह परस्पर मित्र हैं या दोनों के राशि स्वामी एक ही ग्रह है तब दम्पति में प्रेम बना रहता है. यदि राशि स्वामी परस्पर शत्रु हों तो विचार नहीं मिलते हैं. विचारों में मतभेद और विवाद रहता है.

  • यदि दोनों परस्पर मित्र हैं तो 5 अंक मिलते हैं.
  • एक सम दूसरा मित्र है तो 4 अंक.
  • एक मित्र दूसरा शत्रु है तो 1 अंक.
  • परस्पर सम 3 अंक.
  • एक सम दूसरा शत्रु तो 1/2 अंक.
  • परस्पर शत्रु 0 अंक.
  • यदि दोनों के राशि स्वामी एक ही है तब भी 5 अंक मिलते हैं. 

9. चतुष्पाद नक्षत्र - Chatushpad Nakshatra 

जिन नक्षत्रों के चारों चरण एक ही राशि में पडे़ वह चतुष्पाद नक्षत्र कहलाते हैं.

अश्विनी, भरणी, रोहिणी, आर्द्रा, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा़, श्रवण, शतभिषा, उत्तराभाद्रपद, रेवती नक्षत्र चतुष्पाद नक्षत्र हैं. 

10. जामित्र दोष - Jamitra Dosh

विवाह के दस दोषों में से एक दोष जामित्र दोष भी है.

सप्तम भाव या सप्तम स्थान को जामित्र भी कहते हैं. इस प्रकार इस भाव से संबंधित दोष को यामित्र या जामित्र दोष कहते हैं. चन्द्रमा से सप्तम स्थान या लग्नसे सप्तम स्थान में विवाह के समय किसी भी ग्रह की स्थिति से यह दोष होता है. साथ ही चन्द्रमा पापयुक्त ना हो और पाप ग्रह चन्द्र नक्षत्र में ना हों. विवाह लग्न या चन्द्रमा से सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित है, यदि वह ग्रह विवाह लग्न या चन्द्र से 55वें नवांश में स्थित हो तो जामित्र दोष का अधिक सूक्ष्म प्रभाव होता है. पापी ग्रह द्वारा उत्पन्न होने वाला जामित्र दोष अधिक अशुभ होता है. यदि विवाह लग्न की कुण्डली में चन्द्रमा बली हो और जामित्र दोष बनाने वाला ग्रह शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तब जामित्र दोष का अशुह प्रभाव कम हो जाता है. यदि चन्द्रमा और बृहस्पति बली होकर विवाह लग्न के सप्तम भाव में स्थित हों तब जामित्र दोष नहीं होता है.

विवाह लग्न में चन्द्रमा से सप्तम भाव में यदि बुध स्थित हो तब वह भी शुभ फल देता है. 

11. तारा मिलान - Tara Milan [Tara Matching]

 तारा 9 प्रकार की होती हैं.

  • 1 जन्म
  • 2 सम्पत
  • 3 विपत
  • 4 क्षेम
  • 5 प्रत्यरि
  • 6 साधक
  • 7 वध
  • 8 मित्र
  • 9 अतिमित्र


इन ताराओं के नाम के अनुसार ही इनके फल हैं. 3,5,7 तारा अपने नाम के अनुसार अशुभ है. पहले वर एवं वधु की ताराओं का निर्धारण कर लेना चाहिए.

  • यदि दोनों प्रकार से तारा विपत, प्रत्यरि एवं वध ना हो तो तारा शुभ होती है तथा उसके पूरे तीन अंक माने जाते हैं.
  • यदि एक की तारा शुभ हो तब 1 1/2 अंक मिलता है.
  • यदि दोनों ही अशुभ तारा आ रही हों तब 0 अंक मिलता है. 
तारा के शुभ-अशुभ की जानकारी के लिए वर के नक्षत्र से कन्या के नक्षत्र तक गिनकर प्राप्त संख्या में 9 का भाग दें जो संख्या शेष बची उस की तारा होगी. इसी प्रकार कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र तक गिनकर तारा संख्या प्राप्त करें.

 

12. त्रिनाडी़ चक्र - Trinadi Chakra

 अश्विनी नक्षत्र से तीन-तीन नक्षत्रों की गणना सीधे और उल्टे क्रम से करें. पहले तीन नक्षत्र सीधे, फिर अगले तीन नक्षत्र उलटे लिखें. इस प्रकार नक्षत्रों की एक तालिका बन जाएगी.
  • पहली पंक्ति के नक्षत्र आदि नाडी़ में आते हैं.
  • दूसरी पंक्ति में लिखे नक्षत्र मध्या नाडी़ में आते हैं.
  • तीसरी पंक्ति के नक्षत्र अन्त्या नाडी़ के अन्तर्गत आते हैं.

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13. त्रिपाद नक्षत्र - Tripad Nakshatra 

अवकहडा़ चक्र में जिस नक्षत्र के तीन चरण किसी एक राशि में पडे़ तथा एक चरण अगली राशि में पडे़ अर्थात एक चरण पृ्थक राशि में रहे, उस नक्षत्र को 'त्रिपाद' नक्षत्र कहते हैं. कृ्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढा़, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों को 'त्रिपाद' नक्षत्र कहते हैं. 

14. दग्धा तिथि - Dagdha Tithi 

इस तिथि के निर्णय का आधार सूर्य और चन्द्रमा की राशि से होता है. इस आधार पर सौर मास में कुछ चान्द्र तिथियाँ दग्ध होती हैं, ये शुभ कार्यों में वर्जित हैं.

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सूर्य उपरोक्त राशियों में स्थित होने के साथ ही जिस दिन उपरोक्त तिथियों में भी रहता है तब उन तिथियों को दग्धा तिथियाँ कहते हैं. 

15. द्विपाद नक्षत्र - Dwipad Nakshatra 

जब किसी नक्षत्र के दो चरण एक राशि में बाकि दो चरण दूसरी अर्थात अगली राशि में पड़ते हैं तो वह द्विपाद नक्षत्र कहलाते हैं. मृ्गशिरा, चित्रा, धनिष्ठा ये द्विपाद नक्षत्र हैं.  

15. नाडी़ मिलान - Nadi Milan [Nadi Matching]

नाडि़याँ तीन प्रकार होती हैं :-

  • (1) आदि नाडी़
  • (2) मध्य नाडी़
  • (3) अन्त्या नाडी़


  • व्यक्ति की नाडी़ का निश्चय उसके जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है. नक्षत्रों की संख्या 27 हैं तथा नाडि़यों की संख्या 3 है. अत: प्रत्येक नाडी़ में 9 नक्षत्र आते हैं.
  • शरीर के वात,पित्त और कफ़ इन तीनों दोषों की जानकारी नाडी़ स्पन्दन द्वारा होती है ठीक उसी प्रकार दो अपरिचित लोगों के मन की जानकारी आदि, मध्य एवं अन्त्या नाडि़यों से की जाती है.
  • वर-वधू की एक नाडी़ होना मेलापक में वर्जित माना गया है. गुण मिलान में नाडी़ मिलान के सर्वाधिक 8 अंक होते हैं. भिन्न नाडी़ होने पर 8 अंक तथा एक ही नाडी़ होने पर 0 अंक मिलते हैं.


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16.  नाडी़ दोष का परिहार
  • कुछ स्थितियों में नाडी़ दोष का परिहार हो जाने पर यह दोष प्रभावहीन हो जाता है. यदि एक ही नक्षत्र में उत्पन्न वर एवं कन्या के नक्षत्रों के चरण भिन्न-भिन्न हो तो नाडी़ दोष का परिहार हो जाता है.
  • यदि वर एवं कन्या का जन्म भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में होते हुए नाडी़ दोष हो तो उन दोनों की राशि एक होने पर इस दोष का परिहार हो जाता है. 

17. पक्ष और तिथि शुद्धि - Paksha And Tithi 

 Shuddhi 

विवाह मुहुर्त में पक्ष और तिथि शुद्धि

ज्योतिष ग्रन्थों में कृ्ष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष में से शुक्ल पक्ष को समस्त कार्यों के लिए शुभ माना गया हैं. कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि तक शुभ कार्य किए जा सकते हैं. कई ग्रन्थों में दशमी तिथि तक कार्य कर सकते हैं. तिथियों को ग्रन्थों में ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है. परन्तु रिक्ता तिथि को त्यागना चाहिए. तिथियों में भी चतुर्दशी, अमावस्या तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा त्याज्य होती है. 

18. पात दोष - Paat Dosh

पात दोष :- इसका दूसरा नाम “चण्डीश चण्डायुध “ भी है. इसका संबंध पंचांग में बताए गये साध्य, हर्षण, शूल, वैधृ्ति, व्यातिपात व गण्ड योगों से है. इन योगों का जो अन्त समय पंचांग में लिखा हो, उस समय जो नक्षत्र (चन्द्र नक्षत्र या दिन नक्षत्र) होगा, वह पात दोष से दूषित होगा.

हम यह भी कह सकते हैं कि जिन नक्षत्रों में उपरोक्त योग समाप्त होते हैं वह नक्षत्र पात दोष से पीड़ित होते हैं.दिए गए योग सूर्य और चन्द्रमा की एक-दूसरे से दूरी के आधार पर बनते हैं. इसलिए पात दोष को विवाह के समय सूर्य तथा चन्द्रमा द्वारा अधिष्ठित नक्षत्रों के आधार पर बताया जा सकता है.  

19.बाण पंचक - Baan Panchak 

बाण पाँच प्रकार के होते हैं.

  • रोग बाण
  • अग्नि बाण
  • राज बाण
  • चोर बाण
  • मृ्त्यु बाण.


बाणों में प्रमुखतया मृ्त्यु बाण का विवाह में त्याग करना चाहिए

20. भकूट मिलान - Bhakut Milan [Bhakut Matching]

भकूट मिलान

भकूट का तात्पर्य वर एवं कन्या की राशियों के आपसी अंतर से है. यह 6 प्रकार से होता है.

  • (1) दोनों के राशि स्वामी एक - दूसरे से 1/7 अक्ष पर हों (2) एक - दूसरे से द्विर्द्वादश हों अर्थात 2/12 अक्ष पर हों
  • (3) 3/11 अक्ष पर हों. (4) 4/10 अक्ष पर हों.
  • (5) 5/9 अक्ष पर हों इसे नव-पंचम भी कहते हैं
  • (6) 6/8 अक्ष या षडाष्टक बना रहे हों.


  • इन 6 प्रकार के भकूट में से द्विर्द्वादश, नव-पंचम और षडाष्टक ये तीनों भकूट खराब हैं. इन तीनों दोषों को काफी महत्व दिया गया है. तीनों अशुभ एवं त्याज्य माने गए हैं.
  • भकूट की पूर्ण शुभता के 7 अंक मिलते हैं. दुष्ट भकूट ( द्विर्द्वादश, नव-पंचम एवं षडाष्टक ) में राशिशों की मित्रता होने पर 4 अंक मिलते हैं. अन्यथा 0 अंक मिलते है.


21.भकूट दोष का परिहार

वर एवं कन्या कि एक ही राशि या राशि मैत्री तथा नाडी़ दोष ना होने पर भी भकूट दोष प्रभाव हीन हो जाता है. षडाष्टक भकूट में यदि वर एवं कन्या की राशियों के स्वामी नीच राशि में या नीच नवांश में हों तो यह दोष कुछ कम हो जाता है. 

22.मंगली दोष का परिहार - Manglik Dosh ka Parihar 

मंगली दोष का परिहार

कुछ परिस्थितियों में मंगल दोष प्रभाहीन हो जाता है :-

  • (1) कुन्डली में लग्न आदि 5 भावों में से जिस भाव में मंगलीक योग बन रहा हो, यदि उस भाव का स्वामी बलवान हो तथा उस भाव में बैठा हो या देखता हो साथ ही सप्तमेश या शुक्र त्रिक स्थान में न हो तो मंगली योग का अशुभ प्रभाव नष्ट हो जाता है.
  • (2) यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान होकर केन्द्र त्रिकोण में हो तो मंगल दोष प्रभावहीन हो जाता है.
  • (3) वर या कन्या में से किसी एक की कुन्डली में मंगल दोष हो तथा दूसरे की कुन्डली में लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव में शनि हो तो मंगल दोष दूर होता है.
  • (4) वर - कन्या में से किसी एक की कुन्डली में मंगली दोष हो और दूसरे की कुन्डली में उस भाव में कोई पाप ग्रह हो तो मंगली दोष नष्ट हो जाता है.
  • (5) यदि शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोण में तथा शेष पाप ग्रह त्रिषडाय में हो और सप्तमेश ,सप्तम स्थान में हो तब भी मंगली योग प्रभावहीन हो जाता है.
  • (6) मंगली योग वाली कुन्डली में बलवान गुरु या शुक्र के लग्न या सप्तम में होने पर अथवा मंगल के निर्बल होने पर मंगली दोष दूर हो जाता है.
  • (7) मेष लग्न मे यदि मंगल लग्न में है या वृ्श्चिक राशि में चतुर्थ भाव में मंगल स्थित है तो मंगल दोष नहीं है. वृ्षभ राशि में सप्तम स्थान में स्थित मंगल या कुंभ राशि में अष्टम स्थान में स्थित मंगल और धनु राशि में व्यय स्थान में स्थित मंगल से मंगली दोष नहीं होता.
  • (8) कर्क या मकर का मंगल सप्तम स्थान में होने पर, मीन का मंगल अष्टम स्थान में होने पर तथा मेष या कर्क का मंगल व्यय स्थान में होने पर मंगल दोष नहीं होता.
  • (9) यदि मंगली योग कारक ग्रह स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या उच्च राशि में हो तो मंगल दोष स्वत: ही समाप्त हो जाता है. 

23. मध्य नाडी़ - Madhya Nadi

मध्या नाडी़, नाडी़ चक्र की दूसरी नाडी़ है. यह नाडी़ पित्त प्रवृ्त्ति की नाडी़ है. यदि जातक की मध्य नाडी़ है तो उसे पित्त विकार से संबंधित रोगों की संभावना अधिक रहेगी. 

24.माहेन्द्र कूट - Mahendra Koot

माहेन्द्र कूट का तात्पर्य - केन्द्र का बलवान होना है. जैसे कन्या का जन्म नक्षत्र रोहिणी है तो प्रथम नक्षत्र रोहिणी, चतुर्थ नक्षत्र पुनर्वसु, सप्तम नक्षत्र मघा और दशम नक्षत्र हस्त, केन्द्र नक्षत्र होते हैं. वर का जन्मनक्षत्र कन्या के जन्मनक्षत्र से 1,4,7,10,13,16,19,22,25वाँ हो तो माहेन्द्र मिलान उत्तम होता है. माहेन्द्र कूट से दाम्पत्य जीवन के सुखमय होने का तथा संतान सुख का विचार करते हैं.

कन्या के जन्म नक्षत्र से वर के जन्म नक्षत्र तक गिने. जो संख्या प्राप्त हो उसे तीन से भाग दें. यदि शेष एक बचता है तो वह माहेन्द्र कहा जाता है. यदि शेष तीन बचेगा तो माहेन्द्र कूट का मिलान उत्तम नहीं है.  

25. युति दोष - Yuti Dosh

युति दोष उस समय होता है जब विवाह के समय चन्द्र नक्षत्र से पाप ग्रह युति करते हों. चन्द्रमा यदि स्वराशि या उच्च राशि में हो तो विशेष प्रभाव नही होता है. कुछ विद्वानों का मानना है कि किसी भी ग्रह की युति हो वह अच्छा नहीं है. युति का परिहार चन्द्रमा के बलवान होने से ही होता है. शुभ ग्रह बुध व गुरु दोष कारक नहीं माने जाते है. चन्द्रमा और अन्य ग्रह का नक्षत्र एक ही हो पर दोनों राशि अलग हों तो भी युति दोष माना जायेगा. 

26. योग और करण शुद्धि - Yog And Karan Shuddhi 

विवाह मुहूर्त में कुछ योगों को त्याग दिया गया है, जो निम्नलिखित हैं :-

वैधृ्ति, व्याघात, शूल, व्यातिपात, अतिगण्ड, वज्र, विषकुंभ, गण्ड, परिधि, हर्षण योग. विष्टि या भद्रा के संबंध में भी सभी विद्वानों ने इसका पूर्णतया त्याग करने को कहा है. शकुनादि चार स्थिर करण भी त्याज्य हैं. इनका त्याग अपने आप ही हो जाता है यदि कृ्ष्ण चतुर्दशी, अमावस्या आदि को छोड़ दिया जाये. 

27. योनि मिलान - Yoni Milan [Yoni Matching] 

योनियाँ 14 प्रकार की होती हैं :- 1 अश्व, 2 गज, 3 मेष, 4 सर्प, 5 श्वान, 6 मार्जार, 7 मूषक, 8 गौ, 9 महिष, 10 व्याघ्र, 11 मृ्ग, 12 वानर, 13 नकुल एवं 14 सिंह. योनि विचार में नक्षत्रों की संख्या 28 मानी गई हैं. इसमें अभिजित नक्षत्र को भी शामिल किया गया है. व्यक्ति के जन्म नक्षत्र के आधार पर उसकी योनि का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए. योनि विचार में समान योनि शुभ मानी गई हैं. मित्र योनि और भिन्न योनि भी ले सकते हैं परन्तु वैर (शत्रु योनि) योनि सर्वथा वर्जित है.

  • योनि विचार में पूर्ण शुभता के 4 अंक होते हैं.
  • समान योनि होने पर 4 अंक
  • मित्र योनि होने पर 3 अंक
  • समयोनि के 2 अंक
  • शत्रु योनि का 1 अंक
  • अतिशत्रु योनि का 0 अंक माना जाता है.


योनि मिलान को वर-वधु के मिलान के लिए तो हम लेते ही है साथ ही यह साझेदारी, मालिक, नौकर एवं राजा तथा मंत्री के परस्पर मेल के लिए भी विचारणीय है. सम योनि के लोगों की मनोवृ्त्ति, रूचि, एवं जीवन के मूल्य समान होते हैं.

28. लत्ता दोष - Latta Dosh 

लत्ता दोष :- इस दोष को लात दोष भी कहते हैं. बृ्हस्पति जिस नक्षत्र पर हो उससे आगे के छठे नक्षत्र पर सूर्य, मंगल तीसरे नक्षत्र पर, शनि आठवें नक्षत्र पर लात मारता है.

इसी प्रकार पूर्ण चन्द्र अपने नक्षत्र से पिछले 22 वें नक्षत्र पर, राहु 9 वें नक्षत्र पर, बुध सातवें पर, शुक्र पाँचवें नक्षत्र पर लात मारता है. मतान्तर से केवल पाप ग्रहों की लत्ता को त्याग देने की बात कही गई है. 

29.वर्ग विचार Varga Vichar 

वर्ग विचार वर्ग आठ प्रकार के होते हैं :-

  • (1) गरुड़
  • (2) विडाल
  • (3) सिंह
  • (4) श्वान
  • (5) सर्प
  • (6) मूषक
  • (7) मृ्ग
  • (8) मेष


वर्ग जानने के लिए वर और कन्या के जन्म नक्षत्र के अनुसार अक्षर उसी प्रकार से निकाल लेना चाहिए जैसे जन्म नाम रखने के लिए निकालते हैं. इसके लिए अवकहडा़ चक्र की सहायता ली जा सकती है. जन्म नक्षत्र एवं उसके चरण के आधार पर अक्षर जानकार वर्ग का निश्चय करना चाहिए. वर्ग का निश्चय कर उनकी पारस्परिक मित्रता या शत्रुता आदि का विचार करना चाहिए. वर्गों के पारस्परिक संबंध तीन प्रकार के होते हैं - सम, शत्रु एवं मित्र. प्रत्येक वर्ग से तीसरा उसका सम, चौथा मित्र एवं पांचवाँ शत्रु होता है.

30. वर्ण मिलान - Varna Milan [Varna Matching]

वर्ण मिलान, अष्टकूट मिलान में से एक है.

वर-कन्या का वर्ण समान है (जैसे दोनों क्षत्रिय हों, ब्राह्मण हों आदि) या वर के वर्ण से कन्या का वर्ण निम्न हो तब वर्ण गुण मिलान में एक अंक मिल जाता है. यदि वर के वर्ण से कन्या का वर्ण ऊँचा (श्रेष्ठ) हो तब वर्ण गुण मिलान में 0 अंक मिलता है.

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वर्ण चार होते हैं :-
  • (1) ब्राह्मण
  • (2) क्षत्रिय
  • (3) वैश्य
  • (4) शूद्र
  • इनका निर्धारण जन्म राशि के आधार पर किया जाता है.
  • कर्क, वृ्श्चिक और मीन राशि ब्राह्मण वर्ण हैं.
  • मेष, सिंह और धनु राशि क्षत्रिय वर्ण हैं.
  • वृ्ष, कन्या और मकर राशि वैश्य वर्ण है.
  • मिथुन, तुला और कुंभ राशि शूद्र वर्ण हैं.

वर एवं कन्या के जन्मनक्षत्र से उनकी राशि का निश्चय करके वर्ण का विचार करना चाहिए.

31. वश्य कूट मिलान - Vashya Koot Milan [Vashya Koot Matching] 

वश्य कूट मिलान का संबंध विवाह ज्योतिष में अष्टकूट मिलान से है.

वर एवं कन्या की राशियों से उनके वश्य का निश्चय करके फिर उनके स्वभाव के अनुसार उनमें वश्यभाव, मित्रभाव, शत्रुभाव या भक्ष्य भाव पर ध्यान देना चाहिए.

  • यदि दोनों के वश्यों में मित्रता हो तो 2 गुण
  • यदि एक वश्यभाव एवं दूसरा शत्रु भाव रखता हो तो 1 गुण
  • यदि एक वश्य भाव और दूसरा भक्ष्य भाव रखता हो तो आधा गुण.
  • दोनों परस्पर शत्रुभाव या भक्ष्यभाव रखते हों तो कोई गुण नहीं मिलता.


वश्य पाँच प्रकार के होते हैं :-

  • (1) चतुष्पाद
  • (2) मानव (द्विपद)
  • (3) जलचर,
  • (4) वनचर
  • (5) कीट


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  • मेष, वृ्ष, सिंह व धनु का उत्तरार्द्ध तथा मकर का पूर्वार्द्ध चतुष्पाद संज्ञक होते हैं.
  • सिंह राशि चतुष्पाद होते हुए भी वनचर मानी गई है.
  • मिथुन, कन्या, तुला, धनु का पूर्वार्द्ध तथा कुंभ राशि द्विपद या मानव संज्ञक मानी गई हैं.
  • मकर का उत्तरार्द्ध, मीन तथा कर्क राशि जलचर होती हैं. वृ्श्चिक राशि कीट मानी गई है.

इस प्रकार वर एवं कन्या के वश्य का निर्धारण उनकी राशि से कर लेना चाहिए.

32. विवाह के प्रकार - Types of Marriage 

प्राचीन काल में विवाह को आठ श्रेणियों में बांटा गया था. अर्थात आठ प्रकार के विवाहों को स्वीकारा गया था.

  • (1) ब्राह्म विवाह
  • (2) दैव विवाह
  • (3) आर्ष विवाह
  • (4) प्राजापत्य विवाह
  • (5) आसुर विवाह
  • (6) गान्धर्व विवाह
  • (7) राक्षस विवाह
  • (8) पैशाच विवाह 

33.विवाह मासादि- Vivah Masadi 

विवाह - मासादि

आचार्यों ने माघ, फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ व मार्गशीर्ष मासों को ववाह के लिए उपयुक्त बताया है. इसके अतिरिक्त आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि तक यदि कर्क संक्रान्ति ना हुई तो भी विवाह हो सकता है. पौष मास के उत्तरार्ध में यदि मकर संक्रान्ति हो गई हो तो भी विवाह संभव है. 

34. विवाह में कार्तिक मास का विशेष नियम - [Special Rule of Kartik Month in Marriage]

आचार्यों ने कार्तिक मास की पूर्णिमा से पाँच दिन पहले व पीछे, विवाह में दोष नहीं बताया है अर्थात तिथिवार, नक्षत्र तथा त्रिबल शुद्धि अविचारणीय होती है. इन तिथियों में बृ्हस्पति, शुक्रास्त होने पर भी विवाह संपन्न हो सकता है. परन्तु ग्रहण सूतक तथा चन्द्रबल पर अवश्य विचार कर लेना चाहिए और गोधूलि तथा गोधूलि लग्न को प्राथमिकता देनी चाहिए. 

35. वेध दोष - Vedh Dosh 

वेध दोष का त्याग सर्वत्र किया जाता है. पंचशलाका व सप्तशलाका के द्वारा वेध दो प्रकार से होता है. पाँच सीधी रेखाओं से और पाँच आडी़ रेखाओं से पंचशलाका चक्र बनता है. इसी प्रकार सात रेखाएँ सीधी और सात आडी़ रेखाओं से सप्तशलाका चक्र बनता है. पंचशलाका वेध का विचार विवाह, वधु प्रवेश आदि में किया जाता है. इसके अतिरिक्त विवाह में जो कार्य होते है उनमें सप्तशलाका चक्र के वेध का विचार किया जाता है. इसमें नक्षत्रों का वेध होता है. यदि वे एक ही रेखा पर पड़ते हों.

पंचशलाका चक्र
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सप्तशलाका चक्र
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इसमें नक्षत्रों का वेध होता है यदि वे एक ही रेखा पर पड़ते हों. विवाह नक्षत्र का जिस नक्षत्र के साथ वेध हो, उस नक्षत्र में यदि कोई ग्रह स्थित हो तो वेध माना जायेगा. 

36. संग्रह चन्द्र दोष - Sangrah Chandra Dosh

 विवाह लग्न में चन्द्रमा सूर्य युत हो तो दरिद्रता

  • मंगल युत हो तो मृ्त्यु
  • बुध युक्त हो तो शुभ
  • गुरु युक्त हो तो सुख
  • शुक्र युक्त हो तो पति का परस्त्रीसंबंध
  • शनियुक्त हो तो वैराग्य अर्थात सांसारिक जिम्मेवारियों के प्रति उदासीनता होती है.
  • राहु/केतु युक्त चन्द्रमा पाप युत ग्रह से ही अशुभ हो गया है.


विवाह लग्न में चन्द्रमा, सूर्य-मंगल, शनि, राहु या केतु किसी भी पाप ग्रह से युक्त नहीं होना चाहिए. चन्द्रमा अकेला व बलवान हो तभी अच्छा होता है. मतान्तर से शुभयुक्त होने पर भी कोई न कोई दोष होता है.

37. स्त्री दीर्घ कूट - Stri Dirgh Koot

स्त्री दीर्घ कूट का अर्थ है कि वर का जन्म नक्षत्र कन्या के जन्म नक्षत्र से नौ से अधिक होना चाहिए.
  • प्रथम भाव स्वयं को निर्धारित करता है.
  • द्वितीय भाव से कुटुम्ब का पता चलता है.
  • तृ्तीय भाव से छोटे भाई-बहन को देखते हैं.

इसका अर्थ ये है कि वर का जन्म नक्षत्र कन्या के नक्षत्र से नौ से कम हुआ तो उनकी जन्म राशि कन्या की राशि से अगली तीन राशियों में से एक होगी और वर व कन्या एक दूसरे के संबंधी हो जाएंगें. इस कारण स्त्री दीर्घ कूट का विचार किया जाता है. 

ref  http://amithiratna.blogspot.com/2011/10/1.html

1 comment:

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