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Saturday 20 July 2013

सूक्तम्


सूक्तम्
हिन्दु धर्म मे चार वेदों का बहुत महत्त्व है, क्रमशः चार वेद – ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद हैं। इन चारों वेदों में ही हिन्दु धर्म के विभिन्न देवताओं के अनेकों सूक्त है। वैदिक-मन्त्रों के समूह को आप सूक्त कह सकते है। जिस ॠषि ने भी जिस देवता की मन्त्रों के द्वारा स्तुति की अर्थात् जिस ॠषि को समाधि की अवस्था में जिस भी देवता के विभिन मंत्र दिखलाई दिये या प्राप्त हुऐ उस ॠषि ने उन मंत्रों के द्वारा उस-उस देवता की स्तुति की और वह-वह मंत्र उस-उस देवता के सूक्त कहलाये।

प्रचीन ॠषियों ने वेदों में से आम व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हेतु विभिन्न सूक्तों को छाँट कर या अलग करके पुराणों में एवं शास्त्रों में लिखा। सभी सूक्त वेदों में से लिये गये हैं, इसलिये इन सूक्तों को किसी भी धर्म – जाति का व्यक्ति चाहे व ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ही क्यों न हो, सभी इन सूक्तों का पाठ कर सकते हैं। इन सूक्तों का पाठ करने के लिऐ गुरू-मुखी होने की भी आवश्यकता नहीं है। इन सूक्तों का पाठ जिसने गुरू-धारण किया है वह भी कर सकता है और जिसने गुरू-धारण नहीं किया वह भी कर सकता है, क्योंकि सभी धर्मो के प्रमुख ग्रन्थ- ‘चार वेद’, ‘गुरू ग्रन्थ साहब’, ‘कुरान-शरीफ’, ‘बाईबल’ आदि ग्रन्थ पूरी तरह से हर व्यक्ति और हर जाति के व्यक्ति पढ़ सकते है। इनके उपर किसी भी तरह की कोई भी पाबंधी नहीं है। इसके विपरीत जितने भी तान्त्रिक ग्रन्थ हैं वह कीलित् (बन्धे-हुऐ) ग्रन्थ हैं। उनके लिऐ योग्य गुरू कि आवश्यकता होती है। उदाहरण के तौर पर दुर्गा-सप्तशती भगवान शिव के द्वारा कीलित् है। इसलिये इसको पढ़ने से पहले गुरू कि आज्ञा अर्थात् गुरू-मुखी होना अनिवार्य है।

आज का आम साधक(व्यक्ति) अधिकतर किताबों में से पढ़ कर या इधर-उधर से ले कर तान्त्रिक मंत्रों का जाप करता है। जाप के बाद फायदा न होने पर या तो मंत्र को या उसके बताने वाले को या पंड़ितों एवं पुराहितों को गलत समझता है। इस का एक कारण यह भी है, कि आज कल के गुरू अधिकतर अपने शिष्यों को तान्त्रिक मंत्र प्रदान तो करते है, किन्तु तान्त्रिक मन्त्र के साथ उसका पूरा विधान साधक को नहीं बतलाते। दूसरा कारण यह है कि अधिकतर गुरू या शिष्य अपने ‘इष्ट’ का ख्याल नहीं रखते अर्थात् प्रत्येक गुरू को अपनी गुरू परम्परा में मिला हुआ मन्त्र पहले स्वयं सिद्ध करना चाहिये और फिर वही मंत्र अपने आने वाले शिष्यों को देना चाहिये। शिष्यों को भी अपने ‘इष्ट’ को ध्यान में रख कर ऐसे गुरू की तलाश करनी चाहिये जो कि आपके ‘इष्ट’ के अनुसार आपको दिक्षा दे सके। किन्तु वेदों के मंत्रों एवं सूक्तों का जाप करने में किसी भी प्रकार का कोई नियम नहीं है, सिर्फ शारीरिक स्वच्छता के अलावा। इन्हे कोई भी व्यक्ति संध्या के समय पढ़ कर सम्पूर्ण रूप से भौतिक एवं अध्यात्मिक लाभ उठा सकता है।

पाप नाश एवं भगवद् कृपा प्राप्ति हेतु पुरूष सूक्त – प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्म के समय पाप और पुण्य दोनों को अपने साथ ले कर पैदा होता है। पाप और पुण्य के अनुसार ही व्यक्ति को घर-परिवार, जाति, धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। जिस व्यक्ति के पुण्य ज्यादा होगें वह उच्च-कुल में जन्म लेकर सभी सुखों का उपभोग करता है, किन्तु अधिक पाप वाला व्यक्ति नीच-कुल में जन्म लेकर तमाम उम्र दुखों एवं गरीबी में बिता देता है। दान-पुण्य करते वक्त जिस व्यक्ति की जैसी भावना होती है, उसका भी बहुत महत्त्व है। यदि कोई व्यक्ति परमात्मा कि कृपा प्राप्ति हेतु दान-पुण्य करता है और उससे यदि अनजाने में कोई पाप हो जाऐं तो अगले जन्म में नीच-कुल में जन्म लेकर भी वह पुण्य-आत्मा अपने सदगुणों का त्याग नहीं करता। पुर्व जन्म के तमाम पापों के समाप्त हुऐ बिना पुण्य का फल नहीं मिलता। प्रत्येक व्यक्ति को पहले पाप और उस के पश्चात पुण्यों का भोग-भोगना होता है, किन्तु कई बार ऐसा देखने में आता है। कि प्रत्येक व्यक्ति को पहले पाप और उस के पश्चात पुण्यों का भोग-भोगना होता है, किन्तु कई बार देखने में आता है कि व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन सुखों में बितता है, किन्तु बुढ़ापे में दुखों कि भरमार होती है, इसका कारण पुर्व जन्म के पाप नहीं अपितु इसी जन्म के पाप होते है। जो व्यक्ति इस जन्म में किये हुये पापों को आयु कम होने कि वजह से बुढ़ापे में नहीं भोग पाता, वहीं बचे हुये पाप व्यक्ति को अगले जन्म की प्रारम्भ अवस्था अर्थात् गर्भ, बचपन एवं जवानी में भोगने पड़ते है।

पुराणों के अन्दर सम्पूर्ण पापों से छुटकारा पाने का श्रेष्ठतम उपाय “पुरूष-सुक्त” है। जो व्यक्ति प्रतिदिन 1 बार ‘पुरूष-सूक्त’ का पाठ करता है, वह अपने इस जन्म में किये हुऐ प्रतिदिन के पापों से छुटकारा पा लेता है, साथ ही जो व्यक्ति प्रतिदिन पुरूष-सूक्त के 5 पाठ करता है, वह इस जन्म के पापों के साथ-साथ पुर्व-जन्म के भी तमाम पापों से छुटकारा पा लेता है।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ पुरुषसूक्त ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

ॐ सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्र पात्।
स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥
पुरुषऽ एव इदम् सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्।
उत अमृत त्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति॥2॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायान्श्र्च पुरुषः।
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्य अमृतम् दिवि॥3॥
त्रिपाद् उर्ध्व उदैत् पुरूषः पादोस्य इहा भवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत् साशनानशनेऽ अभि॥4॥
ततो विराड् अजायत विराजोऽ अधि पुरुषः।
स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिम् अथो पुरः॥5॥
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्।
पशूँस्ताँश् चक्रे वायव्यान् आरण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥
तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्मात् यजुस तस्माद् अजायत117॥
तस्मात् अश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्मात् जाता अजावयः॥8॥
तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातम अग्रतः।
तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥
यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥
मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥
ब्राह्मणो ऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11॥
चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत।
श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखाद् ऽग्निर अजायत॥12॥
नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत।
पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥
यत् पुरुषेण हविषा देवा यज्ञम् ऽतन्वत।
वसन्तो अस्य आसीद् आज्यम् ग्रीष्मऽ इध्मः शरद्धविः॥14॥
सप्तास्या आसन् परिधय त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥
यज्ञेन यज्ञम ऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्।
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥16॥
-------------------------॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥-------------------------------॥सुशान्तिर्भवतु॥---------
रूद्र-सूक्त का महत्त्व
जिस प्रकार सभी पापों का नाश करने में ‘पुरूष-सूक्त’ बेमिशाल है, उसी प्रकार सभी दुखों एवं शत्रुओं का नाश करने में ‘रूद्र-सूक्त’ बेमिशाल है। ‘रूद्र-सूक्त’ जहाँ सभी दुखों का नाश करता है, और शत्रुओं का नाश करता है, वहीं यह अपने साधक कि सम्पूर्ण रूप से रक्षा भी करता है। ‘रूद्र-सूक्त’ का पाठ करने वाला साधक सम्पूर्ण पापों, दुखों और भयों से छुटकारा पाकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है। शास्त्रों में ‘रूद्र-सूक्त को ‘अमृत’ प्राप्ति का ‘साधन’ बताया गया है।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ रूद्र-सूक्तम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतो तऽ इषवे नमः।
बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥
या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥
यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे ।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥
शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि ।
यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥
अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् ।
अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥
असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः।
ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥
असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥
नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे।
अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥
प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्।
याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥
विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत।
अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥
या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः ।
तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥
परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः।
अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥
अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे।
निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥
नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे।
उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥
मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥
मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥
-------------------------॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥-------------------------------॥सुशान्तिर्भवतु॥---------
श्री-सूक्त का महत्त्व
सभी ऐश्वर्यों को देने में समर्थ ‘श्रीसूक्त’ को सभी विद्बान् जानते हैं। सुखों कि प्राप्ति हेतु ‘श्रीसूक्त’ से बढ़ कर न तो कोई मंत्र है, और न ही कोई सूक्त है। जो साधक ‘श्रीसूक्त’ का संध्या के समय अपने इष्ट के सम्मुख बैठ कर या किसी देवालय में या फिर किसी शक्ति-पीठ में बैठ कर ‘श्रीसूक्त’ का पाठ करता है, वह सभी सुखों का भोग-भोगता है। ‘श्रीसूक्त’ से सम्पूर्ण रूप से लाभ पाने हेतु साधक को इसके कम-से-कम 3 पाठ प्रतिदिन करने चाहिये। तभी यह आपकी सम्पूर्ण मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ है।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ श्रीसुक्त ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण रजत स्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥१॥
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मी मन प-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयम् गामश्वं पुरुषानहम्॥२॥
अश्व पूर्वां रथ मध्यां हस्ति नाद प्रबोधिनीम्।
श्रियं देवी मुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥३॥
कां सोस्मितां हिरण्य प्राकाराम आर्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां त-प्रयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्म वर्णां तामि होप ह्वये श्रियम्॥४॥
चन्द्रां प्रभासां यशसाम् ज्वलंतीं श्रियं लोके देव जुष्टाम उदाराम्।
तां पद्म नेमीम् शरणम् प्र पद्ये ऽलक्ष्मीर मे नश्यतां त्वां वृणे॥५॥
आदित्य वर्णे तपसो ऽधि जातो वनस्पति स्तव वृक्षो ऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥६॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर भूतो ऽस्मि राष्ट्रे ऽस्मिन् कीर्तिम् वृद्धिं ददातु मे॥७॥
क्षुत्पि पासा मलां ज्येष्ठाम अलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिम समृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥८॥
गन्ध द्वारां दुरा धर्षां नित्य पुष्टां करी-षिणीम्।
ईश्वरीं सर्व भूतानां तामि होप ह्वये श्रियम्॥९॥
मनसः कामम् आकूतिं वाचः सत्यम् अशीमहि।
पशूनां रूपम् अन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥१०॥
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्मम मालिनीम्॥११॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥१२॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलाम् पद्म मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥१३॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णाम् हेम मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह॥१४॥
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मी मन प-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्यो ऽश्वावान् विन्देयं पुरुषानहम्॥१५॥
-------------------------॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥-------------------------------॥सुशान्तिर्भवतु॥---------
पितृ-सूक्त का महत्त्व
आज के समय में ‘पितृ-दोष’ लगातार फैलता जा रहा है। किसी के घर में ‘पितृ-दोष’ है, तो कहीं किसी की ‘जन्म-कुण्ड़ली’ में ‘पितृ-दोष’ पाया जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि ‘कुल-पुरोहित’ का न होना। दो, तीन दशक पहले तक सभी घरों के अपने-अपने ‘कुल-पुरोहित’ होते थे और आम व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त जो भी श्राद्ध या दान करते थे, उसमें ‘कुल-पुरोहित’ प्रधान होता था, किन्तु समय के साथ-साथ जहाँ बहुत कुछ बदला, वहीं ‘कुल-पुरोहित’ परम्परा भी लुप्त सी हो गई है। गिने-चुने घरों में ही ‘कुल-पुरोहित’ बचे हुऐ हैं। अधिकतर व्यक्ति ‘पितृ-पूजा’ छोड़ चुके हैं। कुछ व्यक्ति पितरों के नाम पर इधर-उधर दान करते है, जिससे कि उन्हे थोड़ा-बहुत फायदा तो होता है, किन्तु सम्पूर्ण रूप से लाभ नहीं मिल पाता। ‘पितर-दोष’ से परेशान व्यक्ति उपाय हेतु जब किसी के भी पास जाता है, तो अधिकतर पंडित-पुरोहित ‘पूरे-परिवार’ (खानदान) को मिलकर ‘पितर-दोष निवारण पूजा’ करने को कहतें हैं, या फिर ‘गया-श्राद्ध’ करने को कहते हैं। आज का समय ऐसा हो गया है कि सम्पूर्ण परिवार पूजा के नाम पर एकत्रित होना मुश्किल है। ‘गया-श्राद्ध’ भी सभी व्यक्ति नहीं करा पाते। कुछ लोग जो ‘गया-श्राद्ध’ करवाते भी हैं, तो सम्पूर्ण नियमों का प्रयोग नहीं करते। जिससे कि उन्हें वो फायदा नहीं मिलता जो कि उन्हें मिलना चाहिये।

‘पितर-दोष निवारण’ की सबसे प्राचीन एवं श्रेष्ठ पद्धति ‘नारायणबलि’ है। ‘नारायणबलि को आज के समय में सही ढ़ंग से करने एवं कराने वाले भी बहुत ही कम ‘पंड़ित’ रह गये है। हमने अपने वर्षो के अनुसन्धान में ‘पितृ-सूक्त’ को ‘पितर-दोष’ का श्रेष्ठ उपाय के रूप में पाया। जो साधक ‘एकादशी’ या ‘अमावस्या’ के दिन, ‘पितृ-पक्ष’ में, या प्रतिदिन ‘पितृ-सूक्त’ का पाठ करता है, उसके ‘घर’ में या ‘जन्म-कुण्ड़ली’ में कैसा भी ‘पितृ-दोष’ क्यों न हो, हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है और ‘पितरों’ की असीम-कृपा ‘साधक और उसके परिवार’ पर हो जाती है। ‘स्कंद-पुराण’ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के अनुसार अपने पितरों के निमित्त दान एवं श्राद्ध करना चाहिये। ब्राह्मणों के पितर ‘ॠषि वसिष्ठ’ के पुत्र माने गये हैं, अतः ब्राह्मणों को उनकी पूजा करनी चाहिये। क्षत्रियों के पितर ‘अंगिरस- ॠषि’ के पुत्र माने गये है, अतः क्षत्रियों को उनकी पूजा करनी चाहिये। वैश्यों को ‘पुलह-ऋषि’ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। शुद्रों को ‘हिरण्यगर्भ’ के पुत्रों की पितर रूप में पूजा करनी चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति अपने पितरों के निमित्त जो भी दान या श्राद्ध करें, उस वक्त यदि वह ‘पितृ-सूक्त’ का पाठ करेंगे, तो उनकी सभी मनोकामनायें पूर्ण हों जाऐंगी।

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ पितर कवचः ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन ।
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः ॥
तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः ।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः ॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः ।
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत् ॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते ।
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम् ॥
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने ।
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून् ।
अग्नेष्ट्वा तेजसा सादयामि॥

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॥ पितृ-सूक्तम् ॥ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
-------------------------॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥-------------------------------॥सुशान्तिर्भवतु॥---------
॥हरि ॐ तत्सत्॥

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